भारतीय सिनेमा में दिखा प्रभाव
उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक हर जगह प्रभु श्रीराम का समान प्रभाव रहा है। इससे भारतीय सिनेमा भी अछूता नहीं है, जहां पौराणिक कथाओं को बड़े पर्दे पर उतारने से लेकर नायक के गुणों तक में नजर आते रहे हैं श्रीराम। दक्षिण भारत सहित बांग्ला फिल्मों के इसी पहलू का विश्लेषण करता संदीप भूतोड़िया का आलेख…
भगवान श्रीराम सिर्फ उत्तर भारत के ही नहीं, बल्कि पूरे भारतवर्ष के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, यही कारण है कि उनका वर्णन भारत में हर तरफ मिलता है। जब सिनेमा अपने शुरुआती कदम बढ़ा रहा था तब इसकी कहानियों में मुख्यत: भारतीय पुराणों, सनातन संस्कृति पर आधारित कथाओं का ही चित्रण किया जाता था। जाहिर है कि जब सिनेमा समाज का दर्पण रहा है तो यहां भी उत्तर से लेकर दक्षिण तक भगवान श्रीराम व रामकथा को सिनेमा समय-समय पर अपने अंदाज में प्रस्तुत करता रहा है। हिंदी सिनेमा में तो रामकथा के रूप मिलते ही हैं, तमिल, तेलुगु, मलयालम से लेकर बांग्ला सिनेमा तक में भगवान श्रीराम की मौजूदगी दर्शकों को प्रभावित करती रही है।
लोककथा दर्शाता तमिल सिनेमा
पौराणिक आख्यानों को बड़े पर्दे पर प्रस्तुत करने के मामले में तमिल सिनेमा का कोई जोड़ नहीं। आरंभिक दौर में तमिल सिनेमा ने आदिकाव्य रामायण को स्थानीय स्तर पर अपनाकर लंबे समय तक प्रस्तुत किया। के. राघवेंद्र राव और भारतीराजा जैसे नामचीन निर्देशकों ने आरंभिक काल में तमिल दर्शकों के लिए रामायण को सिनेमायी स्तर पर प्रस्तुत किया। सिनेमा हमेशा क्षेत्रीयता को संज्ञान में रखते हुए ही प्रस्तुतीकरण देता है। ऐसे में बात जब बड़े पर्दे पर रामायण की प्रस्तुति की आई तो तमिल सिनेमा ने श्रीराम की कथा का चित्रण लोकमान्यताओं के अनुसार किया, जिनमें महाकाव्य के मूल्य स्थानीय परंपराओं के साथ जुड़ते नजर आए। इनका प्रस्तुतीकरण इतना मार्मिक व आकर्षक था कि यह दर्शकों के दिलों में भीतर तक अंकित हो गया। ‘लव कुश’ और ‘श्री राघवेंद्र’ जैसी फिल्मों ने पारिवारिक रिश्तों, वीरता और नैतिक गुणों को केंद्र में रखते हुए श्रीराम की कथा को प्रस्तुत किया है, जिससे तमिल दर्शक गहराई से जुड़ते चले गए।
तेलुगु भाषा में दिखा वैभव
बड़े पर्दे पर वैभव और लार्जर दैन लाइफ कथावाचन के लिए पहचान रखने वाले तेलुगु सिनेमा ने भी रामकथा को बड़ी संपन्नता के साथ प्रस्तुत किया है। गुणशेखर और बापू जैसे प्रसिद्ध फिल्मकारों ने रामकथा के प्रस्तुतीकरण में नाटकीयता, संगीत और विजुअल प्रभावों जैसे निर्देशन के तमाम पहलुओं को जोड़ते हुए रामायण की गाथा को बड़े पर्दे पर प्रदर्शित किया और उनके प्रयास जन-जन में सराहे गए। तेलुगु सिनेमा में श्रीराम के दिव्य गुणों और ईश्वरीय अवतार को प्रमुख तौर पर दर्शाया गया। बापू द्वारा निर्देशित ‘श्रीराम राज्यम’ फिल्म में दर्शकों के बीच श्रीराम की सत्य और न्याय के प्रति अटूट प्रतिबद्धता दर्शाई गई। इसके साथ ही उनके आपसी संबंधों और अपने कर्तव्य के बीच फंसे राजा के रूप में उनके संघर्ष को बड़ी गहनता से प्रस्तुत किया गया है।
सामाजिक पहलू दर्शाती मलयालम फिल्में
भगवान श्रीराम के साथ भारतीय भावनात्मक तौर पर गहराई से जुड़े हैं। इन्हें बड़ी सरलता से प्रस्तुत किया गया मलयालम सिनेमा की राममयी फिल्मों में। यहां रामायण को आध्यात्मिक,मानवीय पहलुओं और सामाजिक-सांस्कृतिक दृष्टिकोण से दर्शाया गया। जी. अरविंदन और हरिहरन जैसे फिल्मकारों ने रामायण महाकाव्य की नैतिक जटिलताओं और दार्शनिक पहलुओं पर प्रकाश डालते हुए श्रीराम का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत किया गया। मलयालम सिनेमा में श्रीराम का चित्रण अक्सर उनके जीवन से मिली शिक्षाओं और नैतिक सिद्धांतों पर केंद्रित रहा। पी. जी. विश्वंभरन द्वारा निर्देशित ‘सीता स्वयंवरम’ जैसी फिल्में श्रीराम और माता सीता की आध्यात्मिक यात्रा, उनके आंतरिक संघर्षों और धार्मिकता के व्यापक विषय की खोज पर प्रमुख तौर पर आधारित रहीं।
बांग्ला में अध्यात्म व नैतिक मूल्यों पर जोर
हिंदी और दक्षिण भारतीय सिनेमा में पौराणिक कथाओं को प्रमुखता से प्रस्तुत किया गया, मगर इस क्रम में बांग्ला सिनेमा प्रयोगवादी रहा। आरंभिक दिनों से ही बांग्ला सिनेमा में किसी नायक से ज्यादा साहित्य को प्रधानता मिली। उस दौर में मदन थियेटर एकमात्र ऐसा बांग्ला स्टूडियो था, जो पौराणिक गाथाओं पर फिल्म निर्माण कर रहा था। हालांकि देवीप्रधान समाज के चलते यहां सिनेमा में भगवान श्रीराम के प्रभाव की परोक्ष उपस्थिति रही। फिर भी वर्ष 1936 में देबकी बोस द्वारा निर्देशित ‘श्री रामकृष्ण’ में तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस से प्रेरित भगवान श्रीराम को सिनेमाई प्रस्तुति मिली। इसमें श्रीराम के दिव्य गुणों और आध्यात्मिक शिक्षाओं को चित्रित किया गया, जिसमें उनके नैतिक मूल्यों और सिद्धांतों को प्रमुखता से दर्शाया गया है तो वहीं देबकी बोस द्वारा निर्देशित फिल्म ‘सीता’ में माता सीता के परिप्रेक्ष्य से उनकी परीक्षाओं और कष्टों को उजागर करते हुए रामायण का सूक्ष्म चित्रण प्रस्तुत किया गया है। अमर चौधरी की ‘रामेर सुमति’ (1947) और मधु बोस की ‘श्री रामकृष्ण लीला’ (1955) जैसी फिल्मों ने श्रीराम को धर्म और कर्तव्य के पालन के प्रतीक के रूप में चित्रित किया, जो उस समय के बंगाल में विकसित होते सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य व प्रचलित सामाजिक मूल्यों के साथ मेल खाता था।
20वीं शताब्दी के छठवें दशक में बांग्ला सिनेमा ने श्रीराम को ईश्वरीय प्रतीक के बजाय अधिक मानवीय रूप में प्रस्तुत किया। ऋत्विक घटक की ‘मेघे ढाका तारा’ (1960) और मशहूर फिल्मकार सत्यजित रे की ‘गोपी गाइन बाघा बाइन’ (1969) में प्रतीकात्मक रूप से रामायण के सार तत्वों को शामिल किया गया, जिसमें त्याग, मुक्ति और बुराई पर अच्छाई की जीत जैसे विषय प्रमुख रहे।
हाल के वर्षों में बांग्ला सिनेमा में पारंपरिक मूल्यों और आधुनिक संवेदनाओं के मिश्रण के साथ श्रीराम के चरित्र को चित्रित करते देखा जा रहा है। नंदिता राय और शिबोप्रसाद मुखर्जी द्वारा निर्देशित ‘रामधनु’ (2014) में श्रीराम को पारिवारिक बंधन और पालन-पोषण के प्रतीक के रूप में प्रदर्शित किया गया। फिल्म में आधुनिक माता-पिता द्वारा अपने बच्चों को नैतिक मूल्य प्रदान करने में आने वाली चुनौतियों पर जोर दिया गया है, जिसमें श्रीराम और उनके पुत्रों लव-कुश की शिक्षाओं की समानताएं दर्शाई गई हैं।
(लेखक संस्कृतिकर्मी हैं )